Wednesday, November 10, 2010

for deepali di

पत्थरों के इस शहर में आईने सा आदमी ,ढूँढने निकला है खुद को चूर चूर आदमी,
चिमनियाँ थीं ,हादसे थे,शोर था, फिर भी मगर,इस भीड़ में कोई नहीं था आदमी,
तन जलेगा मन जलेगा,घर जलेगा बाद में,रौशनी के वास्ते पहले जलेगा आदमी,
दोस्तों में ,रास्तों में,भीड़ में बाज़ार में,हर तरफ खंजर छिपे हैं क्या करेगा आदमी,
चिलचिलाती धुप में है प्यास का मारा हुआ,पाँव में छाले पड़े हैं फिर भी चलता आदमी!!!!!!!!!!!!!!

food or what

रोजाना जो खाना खाते हो वो पसंद नहीं आता ? उकता गये ? 


............ ... ........... .....थोड़ा पिज्जा कैसा रहेगा ? 


नहीं ??? ओके ......... पास्ता ? 

नहीं ?? .. इसके बारे में क्या सोचते हैं ?


आज ये खाने का भी मन नहीं ? ... ओके .. क्या इस मेक्सिकन खाने को आजमायें ? 



दुबारा नहीं ? कोई समस्या नहीं .... हमारे पास कुछ और भी विकल्प हैं........ 
    
ह्म्म्मम्म्म्म ... चाइनीज ????? ?? 


बर्गर्सस्स्स्सस्स्स्स ? ??????? 


ओके .. हमें भारतीय खाना देखना चाहिए ....... 
  ? दक्षिण भारतीय व्यंजन ना ??? उत्तर भारतीय ? 

जंक फ़ूड का मन है ? 




हमारे  पास अनगिनत विकल्प हैं ..... .. 
  टिफिन  ? 


मांसाहार  ? 


ज्यादा मात्रा ? 


या केवल पके हुए मुर्गे के कुछ  टुकड़े ?
आप इनमें से कुछ भी ले सकते हैं ... या इन सब में से थोड़ा- थोड़ा  ले सकते हैं  ...



मगर .. इन लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है ...
   
इन्हें तो बस थोड़ा सा खाना चाहिए ताकि ये जिन्दा रह सकें ..........



इनके बारे में  अगली बार तब सोचना जब आप किसी केफेटेरिया या होटल में यह कह कर खाना फैंक रहे होंगे कि यह स्वाद नहीं है !! 




इनके बारे में अगली बार सोचना जब आप यह कह रहे हों  ... यहाँ की रोटी इतनी सख्त है कि खायी ही नहीं जाती.........



कृपया खाने के अपव्यय को रोकिये!! 

post box

मैं पोस्ट बॉक्स हूँ,वही लाल काला डिब्बा जिसे देख बच्चे खुश हो जाया करते थे,मेरी दुनियाँ पीले नीले कागजों से सजी रहती थी जो आज वीरान सी पड़ी है,आज मुझे कुछ कहना है ,कल जो मैं सबके लिए इतना मायेने रखता था आज बेमाने हो गया हूँ ,मेरा वजूद न जाने  कहाँ खो सा गया है,सड़क किनारे मैं मौन सा खड़ा ,किसी के ख़त का इंतज़ार करता रहता हूँ कि शायद आज किसी भूले भटके को मेरी भी सुध आ जाये ,इस इन्टरनेट कि चमकीली दुनियाँ में,मेरे होने का तो जैसे आज किसी को अहसास ही नहीं,मेरे ना होने से किसी कोई शिकायत नहीं ,कल तक मैं ही था जो सबके संदेशे भेजा करता  था ,आज मेरे डाकिये का भी मुझे पता नहीं मिलता, मुझपे लगा ताला जो रोज़ खुला करता था आज ,कई कई दिनों तक उसे कोई नहीं खोलता ,मेरी जगह आज हाई स्पीड मेल सर्विस ने ले ली है कुछ मिनटों में ही संदेसा पहुँच जाता है,अब कौन करता है डाकिये का इंतज़ार,कौन देखता है राह कि आयेगा किसी प्रियजन का ख़त.मुझे भी लगता है कि मैं शायद फिर से कभी लोगों को याद आऊँगा ,उस पल मैं खुद को सबसे खुशनसीब पाउँगा,पर कोई मेरी सुनता ही नहीं ,मैं भी चाहता हूँ कि कोई मेरी भी सुने.

girls dress changing phase in our culture

कल जब मैं अपने बड़े भाई के साथ एक रेस्तरां में बैठी थी तभी कहीं से कुछ विदेशी लड़कियां वहां आयीं उनकी वेशभूषा कुछ इस प्रकार कि थी कि रेस्तरां में बैठा हर आदमी एक टक उनको देखे जा रहा था,मुझे उतना आश्चर्य नहीं हुआ क्यूंकि उनके देश का परिधान कि वैसा हैं ,परन्तु आश्चर्य मुझे तब हुआ जब मेरे ही देश कि लड़की  को  मैंने उनसे भी आधे कपड़ों में देखा,मुझे ताज्जुब होता है आजकल के माँ बाप पे कि वोह कैसी परवरिश दे रहे हैं अपने बच्चों को,पहले मांएं  जैसे-जैसे  बेटियां बड़ी होने लगती थी उनको घर के काम काज सिखाती थीं ,बताती थीं कि दुनियाँ बहुत बुरी है कपड़े सलीके से पहना करो,आज कल कि माताओं को फुर्सत  नहीं खुद को हाई क्लास सोसाइटी कि दौड़  में शामिल करने से,माना आज ज़माना काफी एडवांस समाज पढ़ा लिखा है ,परन्तु पढ़ा लिखा समाज  यह कब सिखाता है कि बेटी को बिना कपड़ों के घूमने  कि छूट दो,विदेशियों कि नक़ल करने वालों को शायद यह खुद ही नहीं पता कि,यह विदेशी भी  जब हमारे देश में आते हैं तो हमारी संस्कृति अपनाते हुए यहाँ कि वेशभूषा  धारण करते हैं ,जबकि हमारे अपने कुछ लोग हमारी संस्कृति को उजाड़ने पे तुले हैं ,इस फैशन कि अंधी दौड़ में आज कि युवा पीढ़ी ऐसी उलझी हुए है कि इस गुत्थी को सुलझाना शायद नामुमकिन सा होता जा रहा है ,दुःख होता है आजकल के परिधानों को देखकर ,जो कभी शरीर छुपाने के काम आते थे आज दिखाने के काम आते हैं ,आपके सामने से अगर कोई ऐसी  वेश भूषा में गुज़र जाये और आपके साथ आपके बड़े भाई या माँ बाप हो तो खुद शर्म से आँखे चुरानी पड़ती हैं,परन्तु यह युवा वर्ग बड़े गर्व से अपने बॉय फ्रेंड या गर्ल फ्रेंड के गले में हाथ डाले बड़े आराम से घुमते रहते हैं ,जैसे मानो दुनियाँ कि इन्हें कोई परवाह ही न हो, प्रश्न यह है कि क्या हमारी युवा पीढ़ी कभी समझ पायेगी देश के परिधानों के महत्त्व को..........
मैं अर्थात अहम् अहंकार ,मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु " मैं ",पचीन परंपरा रही है कि हिन्दू परिवारों में संयुक्त परिवारों का प्रचलन था जिसमे परिवार का बुजुर्ग घर का मुखिया होता था जो कि परिवार के बाकी सदस्यों का उत्तरदायित्व उठाता था ,परिवार का हर सदस्य अपनी भूमिका बहुत ही सुन्दर तरीके से निभाता था ,सभी सदस्यों में प्रेम एवं त्याग कि भावना का समन्वय था ,सयुंक्त परिवार के बहुत से फायेदे थे छोटों कि पर्वर्रिश बड़ो के प्रेम वृछ तले होती ,कितनी खुशियाँ एक साथ एक ही छत के नीचे मिलती,अच्छा लगता बड़ों का डांटना भी ,एक सभ्य समाज के निर्माण में भी संयुक्त  परिवारों का अच्छा ख़ासा योगदान रहा है क्यूंकि एक अच्छे  नागरिक का जन्म एक अच्छे सभ्य परिवेश में होता है ,परिवार के सदस्य ही एक बच्चे को अच्छे बुरे एवं सही गलत कि शिक्षा देते हैं ,परन्तु आज ये परिवार समाज से विलुप्त से हो गए हैं,पता नहीं क्यूँ लोग अपने उत्तरदायित्वों से मुंह  चुराने कि कोशिश करते रहते हैं ,परिवार में बड़ों आशीर्वाद देव तुल्य माना गया है अगर बड़ों का साया सर है तो बड़ी से बड़ी मुशिकिलों को भी पार किया जा सकता है ,परन्तु आज आधुनिकता का पिशाच परिवारों कि शांति भंग कर चूका है,हर मनुष्य हर समय कभी विषाद कभी उच्च रक्त चाप जैसी रोगों से छोटी सी आयु में ही जूझना शुरू कर देता है ,सच में बहुत याद आता है वो दादी -नानी को छेड़ना उनकी झुर्रियों वाली खाल का सदा आलू बनाना घर में सब भाई बहनों का इकठ्ठा होकर मस्ती मारना ,जीवन में आत्म सुख के लिए हम कितना अमूल्य सुख खो चुके हैं कभी सोचा है. नहीं ना सच है नहीं सोच सकते क्यूंकि ,हमारे पास समय हही नहीं है .आज एकाकी परिवार परंपरा कितना सुख दे पाती है माँ बाप जब काम पे जाते हैं बच्चे किसे सौंप कर जाएँ यह बहुत बड़ी समस्या सामने आती है ,क्या गारंटी है कि जिस किसी को भी यह उत्तर्रदयित्व वोह सौंपेंगे उसकी नीगरानी में वोह सुरच्छित रहेंगे और अच्छे संस्कार ही सीखेंगे ,इन सारी चीज़ों के नुकसान किसका है ,एक प्रश्न है मेरा यह "मैं" "अहम्" किसका हित कारी रहा है जो हम इसे त्याग नहीं सकते ,जहाँ "मैं" का समावेश होता है वहां "हम" कि भावना का कोई स्थान नहीं ,यह "मैं" है जो हमें सुखों से दूर करता है जानते हुए भी इस "मैं" का इतना महत्व क्यूँ है हमारे जीवन में....................


अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ 



अर्थात 
यह तेरा है यह मेरा है ,ऐसी सोच संकुचित एवं तुच्छ बुद्धि के लोगों में होई है ,जो समझदार एवं ज्ञानी मनुष्य हैं, उनके लिए तो पूरा विश्व उनका कुटुंब है!

Sunday, October 17, 2010

Present scenario of villages

21st century which is also called a hightech century.india is developing very fast but if we turn towards the real situation we will come to know that what is the reality.70% indian population lives in villages with that it is also a very important part of our economy.condition of farmers in villages in not good becasue in andhra pradesh farmers are commiting suicide and in up and bihar condition is somewhat same.